सलत के अन्य आध्यात्मिक तत्व


ज़िक्र और हृदय की उपस्थिती के अलावा सलत के आध्यात्मिक तत्वों में शामिल है :

- ज्ञान अर्थात तफ़ागोह, और जागृति अर्थात तफ़ाहोम
- आदर अर्थात ताज़िम
- विस्मय व भय अर्थात हैबात व खौफ
- आशा अर्थात रेज़ा
- उपेक्षा अथवा खोशू


तफाघोह अथवा ज्ञान व तफाहोम अर्थात जागृति

वो व्यक्ति जो ईश्वर की प्रार्थना करता है व उसकी स्तुति करता है उसे प्रार्थना व स्तुति के वास्तविक अर्थ का ज्ञान होना चाहिये। साथ ही प्रार्थना के ऊर्जावान शब्दों में उसे उस वास्तविक अर्थ के ज्ञान के प्रति अपने लक्ष्य को केन्द्रित करना चाहिये।

इमाम रज़ा ने कहा है, प्रार्थना एक पूर्ण एकाग्रता है, जिसका अर्थ है कि हमारा संपूर्ण सत्व उसके लिये समर्पित है। आपने ये भी कहा है, ''प्रार्थना अर्थात अन्य सभी का परित्याग व उसके प्रति समर्पण।.''

ज्ञान का अर्थ, पैगम्बर के कथनानुसार है : 'ज्ञान को शिष्यवृत्ति के समान नी पाया जाता अपितु ये तो ईश्वरैय प्रकाश है जो प्रत्येक साधक के हृदय में मौजूद है।''


ताज़िम अर्थात सम्मान

सलत्‌ के अंतर्गत, सम्मान ज्ञान का परिणाम है और ये अपने स्वामी के समक्ष दासत्व की दिव्य अनुभूति व समर्पण का प्रतीक है। तथा ये स्वयं के अस्तित्व में भी अइने मालिक के अस्तित्व की झलक दिखलाने वाली शक्ति का बोध है।

पाक़ क़ुरआन के कथनानुसार : 'इसलिये ईश्वर में, उसके संदेशवाहक में और उस प्रकाश में विश्वास कीजिये जिसे हमने पाया है।'' 64:8


हबात व खौफ अर्थात विस्मय व भय

विस्मय व भय, ये ईश्वरीय उपस्थिती को सिद्घ करने वालि अवस्था के परिणाम है।

उस दिव्य ईश्वर ने कहा है : वे जो सचमुच ईश्वर से ड़रते है, वे उन दुर्लभ व्यक्तियों में से है जो ज्ञानवान है। पाक़ क़ुरआन 35:28

इसका अर्थ है कि वे बुद्घिमान हैं जो ईश्वर की उपस्थिती में विनम्र बने रहते है। इसलिये

ये एक सर्वमान्य तथ्य है कि उन सभी संतों के चेहरे पर आश्वस्ति और परमानन्द के भाव रहे है जिन्होंने अपने आप को तपस्या की अग्नि में तपाया है और प्रार्थना के लिये तैयार है। जब उनसे इस दशा के विषय में पूछा जाता है, उनका उत्तर होता है : जो भी जानता है उस विषय में कि वह किसकी प्रार्थना कर रहा है, वो इसी असामान्य स्थिती में रहेगा।'' ये एक आनन्ददायक व परिपूर्ण अवस्था है, जो ज्ञान व ज्ञात तथ्यों के कारण है। य्ुो ज्ञान व आत्मज्ञान का सम्मान है।''

वे जिन्होंने ईश्वरीय ज्ञान को पा लिया है और वे इस् ाप्रेम व विज्ञता के छिन जाने से बयभीत रहते है।


रज़ा अर्थात आशा

आशा ही ज्ञान है और वास्तव में ये ईश्वर की कृपा है, उसकी दया है जो हमारे ईश्वरीय विश्वास व श्रद्घा का ही परिणाम है।

हज़रत अली इब्न अबुतलेब :ईश्वर उन्हें शांति में रखेः ने कहा है : ''आशा उस सृजनकर्ता की दया व कृपा है व ये उसके साथ हमारे एक्य का प्रतीक है।''


खोशू

झोलनाउन-अल मसरी ने कहा है : ''एक सूफी दिन पर दिन और दयालु होता जाता है, प्रति घन्टे के साथ वो ईश्वर के और नज़दीक जाता है।'' जो भी सक्रिय है व उसके हृदय में स्थित है, वो बाहर से ही छूट जाता है और उसकी मानसिक शक्तियां, प्रार्थना के दौरान किसी प्रकार की बाहरी शक्तियों से प्रभावित नही होती।


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संदर्भ:
- Sadegh ANGHA, Hazrat Shah Maghsoud, Al-Salat, the reality of Prayer in Islam, M.T.O. Shahmaghsoudi Publication®, Riverside, CA, USA, 1998, pp 5-8.

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